अभी-अभी एक समाचार देखा की एक पुलिस आफिसर को,जिन्हे हाल ही मे स्वतँत्रता दिवस पर पुरस्कार से नवाजा गया था,घूसखोरी के आरोप मे गिरफ्तार किया गया है.आये दिन पुलिस अफसरोँ के अपराध मे शामिल होने की खबरेँ लगातार आ रही हैँ.अब रक्षक ही भक्षक होते जा रहे हैँ…
ये पन्क्तियाँ मैने उस समय लिखी थी,जब एक प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस आफिसर,एक महिला पत्रकार की हत्या के आरोपी थे और भूमिगत थे…
“इस देश की पुलिस पर कुछ तो रहम खाईये,
इतना भी क्या है डरना,बेखौफ बाहर आईये!
मर्जी हो तो कुछ कहना,मर्जी हो तो चुप रहना
जानते ही हो सब दाँव-पेँच,आपका ही है महकमा!
बारी है आज आपकी,कल उनकी भी आयेगी
जनता की तो बिसात क्या,वो कुछ भी न कर पायेगी!
कानून की पकड मे आम आदमी बेचारा,
बदकिस्मत तो वो है ही,व्यवस्था का भी मारा!
इस देश मे न कोई “खास” कोई भी केस हारा
जिससे की तुम न बच सको एसी न कोई “धारा”!!!
—इसी तरह का हाल नेताओँ के साथ भी है,वे भी ‘येन -केन -प्रकारेण’ पुलिस से बच ही जाते हैँ.
कुछ साल पहले हुइ दो प्रदेशोँ की ‘बहुचर्चित’घटनाओँ के बारे मे मैने लिखा था–
(*मनीष जी आपसे और सभी उत्तरभारतीय चिठ्ठाकारोँ से क्षमा माँगते हुए*)
“अपहरणोँ के प्रदेश को हम सब बिहार कहते हँ,
शहाबुद्दीन हैँ अमर वँहा पर सत्येन्द्र दूबे मरते हैँ!!”
“यू.पी वो प्रदेश है जँहा गैर वसूली चलती है,
अमरमणी हैँ अमर वँहा पर मधुमिताएँ मरती हैँ!!”