जीवन मे कई रिश्ते बनते– बिगडते, उलझते सुलझते रहते हैं. पारिवारिक, कार्यक्षेत्र के, दोस्ती के, और मानवीय संवेदनाओं के. भारतीय समाज मे हर तरह के रिश्ते का अपना एक विशेष महत्व है. अब धीरे–धीरे सब कुछ बदल रहा है.भारतीय माँ को पहले हर रोज एक ‘कार्डॅ‘ दिया जाता था कि सारे दिन क्या किया, किससे मिले, किसी दिन खाना थोडा कम खाया तो क्यों, आदि..लेकिन अब “मदर्स डे” के एक कार्ड से माँ को काम चलाना होता है..दोस्ती का रिश्ता भी अन्धे और लन्गडे की तरह था. अन्धा, लन्गडे को कन्धे पर बैठा कर मेले मे ले जाता, यानि दो पक्ष एक दूसरे के पूरक थे..लेकिन अब दोस्ती के बीच भी “थैंक्स“, “सॉरी” और “फ्रेनशिप बेल्ट” आ गये हैं..और हर छोटी– बडी बात पर “कार्ड्स्” का देना– लेना!
नये जमाने के कुछ नये तरह के रिश्ते भी है जैसे चिट्ठों की दुनिया मे शब्दों और विचारों के! कई बार ऐसा होता है कि किसी मुद्दे पर जैसा आप सोचते हैं, जैसा कहना चाह्ते हैं,ठीक वैसी ही अभिव्यक्ति किसी अजनबी के चिट्ठे पर मिल जाती है…
बदलते दौर मे जिस रिश्ते मे ज्यादा बदलाव आया है वो सम्भवत: पति–पत्नी का है..समर्पण और त्याग की जगह अब दम्भ और स्वार्थ दिखाई देता है…
* अब प्रीत की रीत है बदल गई,
रिश्तों की भाषा हुई नई,
पहले सी बातें नही रही,
जब सब कुछ कह देता था मौन!
इस वाचाल हुए युग मे,
चुप की भाषा को समझे कौन!! *
रिश्तों की कैसी उलझन है,
शर्तों पर होते बन्धन हैं!
अब बन्ध जाने का मोह नही,
बस खुल जाने की तडपन है!!
आज जो दिल को प्यारा है,
कल बेकार बेचारा है,
कभी इस पर तो कभी दूजे पर,
घटती बढती अब धडकन है!
रिश्तों की—
इक जागे दूजा सो जाए,
ना पूछे कुछ, ना बतियाए,
दूजे की चिन्ता करे कौन!
पल– पल होती अब अनबन है!
रिश्तों की—
जिसका उसका सपना न्यारा,
बस “मेरा” ही सबसे प्यारा!
झूठे निज स्वाभिमानों से,
भरे हुए उनके मन हैं!
रिश्तों की—
सब काम भी हैं अब बँटे हुए,
अपने जिम्मे से छँटे हुए!
जिसका उसका जो काम करे,
ना हो पाये तो तन तन है!
रिश्तों की—