ज़िन्दगी कहते हैं जिसको, सांस का इक सिलसिला है
लगती हमको खूब प्यारी, पर गज़ब की ये बला है!
सूर्य का है साथ थोड़ा, सांझ को हर दिन ढ़ला है,
साथ निश्चित है उसी का, घर मे जो दीपक जला है!
बढ़ रहा वो पांव आगे, जो कि हमने खुद चला है,
भीड़ मे हैं सब अकेले , फिर भी कहते काफ़िला है!
जाने कब किस तरह पलटे, भाग्य मेरा मनचला है,
चैन से जीने न देगा, वक्त का ये ज़लज़ला है!
———
ज़िन्दगी……

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सुन्दर रचना | आभार | पढ़कर अच्छा लगा और आनंद भी आया |
समय निकल कर आप भी मेरे ब्लॉग पर तशरीफ़ लायें 🙂
अच्छी रचना
सुन्दर….
वो जिंदगी कहाँ की जिसमें साँस तो हो पर अहसास न हो?
वो आसमां कैसा होगा जिसमें टिमटिमाते तारों की बरात ना हो?
काफिले में भी हो जो अकेला, क्या मुमकिन है उसको बैराग न हो?
भाग्य तो विधाता ने लिखा है पल्टे यदि तो क्यूँ खुद से फरियाद न हो?
अंकित।
जाने कब किस तरह पलटे, भाग्य मेरा मनचला है,
चैन से जीने न देगा, वक्त का ये ज़लज़ला है!
…बहुत सही…बहुत खूब!