वो सामयिक था, ये असमय है,
एक वो भी समय था, एक ये भी समय है!
तब आई थी, अब जाना है,
एक वो भी समय था, एक ये भी समय है!
तब पाया था, अब खोना है,
एक वो भी समय था, एक ये भी समय है!
तब खुशियां थीं, अब रोना है,
एक वो भी समय था, एक ये भी समय है!
………………..
समय…………

औरत……
होती बेटी, मां की गोद मे,
वो औरत नादानी सी है.
समझ न पाया कोई जिसको,
वो औरत हैरानी सी है.
खुद के दम पर जग को बदले
वो औरत पहचानी सी है.
थोड़ा पाने, जिस्म लुटाती,
वो औरत जिस्मानी सी है.
भक्ति मे गुम मीरा होती,
वो औरत रूहानी सी है.
छल ना समझे, प्यार लुटाती,
वो औरत दीवानी सी है.
जिस्म लुटा के प्यार न पाए,
वो औरत वीरानी सी है.
झूठी रूठे, सजन सताए,
वो औरत शैतानी सी है.
जीवन भर, दे, कुछ ना चाहे,
वो औरत कुर्बानी सी है.
थक जाए और हार के बैठे,
वो औरत अनजानी सी है.
हारे ना, साहस दिखलाए,
वो औरत पहचानी सी है.
किस्सा जिसका खत्म ही ना हो,
औरत लम्बी कहानी सी है.
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… असमंजस, हैरानी हूं! :)
माफ़ जो हो वो नादानी हूं,
बहता रहता वो पानी हूं!
समझ न पाया अब तक कोई,
वो असमंजस, हैरानी हूं! 🙂
रुकना मेरा छंद नही है,
तट से बंधना पसंद नही है!
बैठ के रोने से क्या होगा,
मुश्किल मेरी चंद नही है!
दिल छू लोगे पिघल जाउंगी,
ढ़ालो जैसे ढ़ल जाउंगी,
बोझ न समझो मुझको अपना,
खुद अपने से सम्हल जाउंगी!
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एक दिन वो दिन भी आयेगा….
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब अंधियारे ये कम होंगे,
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब ये संघर्ष खतम होंगे!
जब हम चाहें वैसा होगा,
थोड़ा सा मन जैसा होगा!
होठों पर खुशियां छायेंगीं,
ना फ़िर से नयना नम होंगे!
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब ये संघर्ष खतम होंगे!
जब मन का पंछी गायेगा,
जब नया सवेरा आयेगा!
जब औरों की चिन्ता तज कर के,
अपने ,निज के हम होंगे!
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब ये संघर्ष खतम होंगे!!

व्यक्तित्व विकास…
बच्चा अपनी बीमार दादी से मिलने ापने गांव नही जा पाता,
वो अपने बूढ़े दादा जी के पास जरा सा भी नही बैठ पाता!
वो ऐसा नही कर पाता क्यों कि उसे-
खूब पढ़ना है, आगे बढना है!
हर विधा मे माहिर होने के लिये उसकी तरह तरह की क्लास है,
मै समझ नही पाती , जो सामाजिकता से ही दूर करे , वो कैसा विकास है ?
वो अपने चचेरे भाई की शादी मे शामिल नही हो पाता,
गांव मे अपना पुश्तैनी खेत देखने नही जा पाता,
वो ऐसा नही कर पाता, क्यों कि हर समय उसकी कोई न कोई परिक्षा है,
लेकिन जो जीवन मूल्य ही न सिखा पाए, वो कैसी शिक्षा है ?
विकसित होते होते ये बच्चे, निज मे ही घुल जाते हैं,
गांव, दादी, मामा मौसी सब भूल जाते हैं!
खुद तो सच्चे रिश्ते बना नही पाते,
बने रिश्ते निभा नही पाते,
जीवन के अन्त मे इनके पास एक भूतहा बंगला और खूब धन भी होगा,
लेकिन बीमार पड़े तो पास बैठने को एक जन नही होगा.
मै इस तरह की शिक्षा और विकास को व्यर्थ मानती हूं,
और इस पीढ़ी के बच्चों से ये कहना चाह्ती हूं –
वे थोड़ा वक्त अपने वृद्ध दादा के साथ बिताएं,
दादी के लिये पूजा के फ़ूल लेकर आएं,
बुआ को कुछ दिन अपने घर बुलाएं,
कुछ त्यौहारों को अपने गांव मे मनाएं,
सांस्कृतिक मूल्यों को अच्छी तरह निभाएं!
अगर ये ऐसा कर पाए ,
तो न ही इन्हे “पर्सनालिटी डेवलपमेन्ट” की कोई क्लास लगानी होगी,
और न ही खुश रहने के लिये किसी “लॊफ़िंग क्लब” की मेम्बरशिप पानी होगी!
जीवन मे पूर्ण सफ़ल होने के लिये थोड़ी समाजिकता जरूरी है,
सिर्फ़ खुद ही के लिये जिये तो जिन्दगी अधूरी है !
सिर्फ़ खुद ही के लिये जिये तो जिन्दगी अधूरी है !!
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रीत……
मां उस बेटे के संग रहती, जिसकी ज्यादा थी न कमाई,
मां थोड़ी गुमसुम सी हो गई, नन्हे की चिट्ठी जो आई,
नन्हे ने अपनी प्रगती की खबर थी मां को भिजवाई,
मां के आंसू थम न सके जब मां ने वो चिट्ठी पढ़वाई!
बेटे ने लिखा था-
दस लाख की लागत से, मां मैने है फ़ैक्ट्री बनवाई,
कल उसके उद्घाटन मे कुछ पूजा थी मैने करवाई,
चाह रहा था तुम्हे बुलाना, पर देखो कितनी मंह्गाई,
बहू को भी वक्त नही है, बच्चों की है खूब पढ़ाई!
इस पार्सल संग भेज रहा हूं, तुम्हे और भैया को मिठाई
मां यह सुन बेचैन हो उठी, उसकी फ़ूट पड़ी रूलाई,
भैया भी कुछ दुखी हुए पर फ़िर भी दे रहे थे वो दुहाई –
मां! क्यूं छोटा मन करती हो, देना चाहिये तुम्हे बधाई!
मां बोली-
मुझको तो भूला, भूल गया वो अपना भाई ?
जिस भाभी ने स्नेह दिया है, उसकी भी उसे याद न आई ?
मेहनत से उसे बड़ा किया है, उसकी ये कीमत है चुकाई ?
अब भाभी धीरे से बोली , खुद को थी वो रोक न पाई –
मां! हमसे ही भूल हुई है, जाने क्यूं थी आस लगाई,
नन्हे ने क्या गलत किया है, दुनिया की ही रीत निभाई !!
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क्या पता मै कौन हूं!
” हमारी फ़ितरत ही ऐसी है कि
एक जैसी ठहर नही पाती है!
हर नये दिन के साथ वो भी बदल जाती है! ! 🙂
क्या पता मै कौन हूं!
वाणी या कि मौन हूं!
मै एक उजली आस हूं,
मै एक अथक प्रयास हूं!
अलगाव हूं, रूझान हूं,
जिम्मेदारी हूं, एहसान हूं!
मै सतह हूं, थाह हूं,
शक्ति मै अथाह हूं!
मै दुख हूं, हर्ष हूं,
साहस हूं, संघर्ष हूं!
प्रचूर हूं, अल्प हूं,
प्रयोग का प्रकल्प हूं,
समस्या हूं, विकल्प हूं!
मै एक द्रूढ संकल्प हूं!
मै एक तीव्र चाह हूं,
खुद ही अपनी राह हूं!
मै प्यार का सम्बन्ध हूं,
या कि मै अनुबन्ध हूं!
मै कर्म हूं और साधना,
और मै आराधना!
मै काव्य हूं और छन्द हूं,
और मै निबन्ध हूं!
आरंभ हूं और अन्त भी,
सूक्ष्म हूं, अनन्त भी!
कही गयी, अभिव्यक्त हूं,
या कि मै अव्यक्त हूं!
सत्य हूं, और स्वप्न हूं
भाग्य हूं, प्रयत्न हूं!
सफ़ल भी हूं, विफ़ल भी हूं,
प्रश्न मै और हल भी हूं!
कठिन हूं मै, सरल भी हूं,
कठोर भी, तरल भी हूं!
गूथी हुई, उलझन भी हूं,
और मै सुलझन भी हूं!
विचार की उत्प्रेरणा ,
मै कर्म की हूं प्रेरणा!
न्यून हूं, समग्र भी,
शांत हूं, और व्यग्र भी!
वेदना, संवेदना हूं
जड़ भी हूं, हूं चेतना!
सुनहरी उजास हूं !
मै आम नही खास हूं !! 🙂

खास नही, आम हूं…..
हर तरह से तमाम हूं
मै खास नही, आम हूं!!
मै, मै हूं,
अनगिनत विचारों की कै हूं!
न पक्ष हूं, न विपक्ष हूं,
मै अपना ही गौण कक्ष हूं!
सवालों की फ़सल सींचता हूं,
हर खड़े हुए को खींचता हूं!
जवाबों का टोटा ( scarcity) हूं,
बिन पेंदे का लोटा हूं!
जिसे हर कोई बजा ले, मै वो धुन हूं,
गेहूं के साथ पिस जाने वाला घुन हूं!
रफ़्तार की लगाम हूं,
प्रगती पर लगा जाम हूं!
मै एक उजली आस हूं,
मै एक अथक प्रयास हूं!
मै अलगाव हूं, रूझान हूं,
जिम्मेदारी हूं, एहसान हूं!
तर्क, वितर्क, कुतर्क मेरा काम है,
बुद्धी नही विचारजीवी मेरा नाम है!!
…….

नेता और जनता
कहने को दोनो इन्सां हैं, पर फ़िर भी थोड़ा फ़र्क यहां,
वो पाते हैं मै खोता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!
ना बाढॆं उन्हे बहा पातीं, ना सूखे से विचलित होते,
ना गर्मी से भी गलते हैं, ना भूकंपों से ढहते वे,
वो बच जाते मै मरता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
हर सुविधा उनके पैरों मे, हर दुविधा को सहता हूं मैं,
ना सुनने की फ़ुर्सत उनको, जो दुख अपने कहता हूं मै,
वो वक्ता हैं मै श्रोता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
सारी खुशियां उनकी अपनी, मेरे हिस्से बस दुख आते,
उनके बच्चे तो मौज करें, मेरे बच्चे भोखे सोते,
वो हंसते हैं, मै रोता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
ना उन्हे किसी की चिन्ता है, काले कामों को करते वे,
चाहे जिये मरे कोई बस अपना घर भरते हैं वे,
वो खाते हैं मै बोता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
वो कई गुनाह पचा जाते, मै हर गलती की सजा पाता,
अफ़सर, कानून, पुलिस उनकी, मै चिल्लता ही रह जाता,
वो निर्भय हैं मै डरता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
दुनिया भर की दौलत उनकी, हर मॊडल की कारें उनकी,
हैं कई कई महल उनके मेरा कमरे भर घर भी नही,
वो बड़े बहुत मै छोटा हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!!
कहने को दोनो इन्सां हैं, पर फ़िर भी थोड़ा फ़र्क यहां,
वो पाते हैं मै खोता हूं, वो नेता हैं, मै जनता हूं!
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आजादियां…………….
* बाहर से आजाद दिखूं, पर,
अन्दर से हूं अब भी बन्द!
तुम कहते हो सुलझ गया सब,
पर बाकी है अब भी द्वन्द!!
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* वो, जो हर दिन अपनी आजादियों की सीमा लांघते हैं,
मुझसे मेरी आजादियों का हिसाब मांगते हैं!!
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* आजादियां भी बन्धनो को ढोती हैं,
उनकी भी अपनी सीमाएं होती हैं,
और तब उनके कोई मायने नही रह जाते,
जब वे अपनी जिम्मेदारियों को खोती हैं!
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* आजाद तो मै तब होउंगी,
जब अपनी सीमाएं खुद तय कर सकूं!
जब अपनी मन्जिलें खुद गढ सकूं!
जब अत्याचारों से खुद लड़ सकूं!!
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* उसे ऊंचाईयों से इतना दूर रखा गया कि,
वो चढना भूल गया!
दमन से वो इस तरह टूटा कि,
वो लड़ना भूल गया!
कैद से छोड़ने मे इतनी देर कर दी कि,
जब छोड़ा, वो उड़ना भूल गया!!
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* जो मिला अपना सा मुझको,
बात दिल की कह गई,
शब्द जो सब बन्द थे अन्दर,
खुल के बात बह गई !!
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