हर तरफ लोहे और सीमेन्ट की इमारतें बनाने मे मजदूर जुटे दिखाई देते हैं..ये दृश्य बिल्कुल आम हैं…मैने कई बार एक अजन्मे बच्चे को भी मजदूरी करते देखा है…माँ अपने अन्दर एक और जीव लिये, सिर पर बोझ उठाती है…उसके और एक या दो बच्चे वहीं पास मे रेत के ढेर पर खेल रहे होते हैं…तब मुझे उसका माँ बनने के लिये समर्थ होना, भगवान से मिला वरदान नही, बल्कि अभिशाप लगता है…तब मुझे ‘दीवाली’ की रोशनी, ‘होली’ के रंग या रक्षा के धागे सब कुछ बेमानी लगते हैं…
अपनी यही नियति मानकर,
वो तो बस चल पडी कामपर
बोझ सभी उसे उठाना था,
थकना उसने कब जाना था?
जल्दी उठी रात जाग कर,
वो तो………
सुनती नही, जो कहता है मन,
साँसें-ढोना, उसका जीवन
जीती रहती, भाग्य जानकर,
वो तो…….
नही चाहती, कुछ अपने को,
जो वो चाहे, सब बच्चों को
लडती है शक्ती समेट कर,
वो तो………
भाग्य से उसे कुछ ना मिलता,
खुद पाती, वो भी लुट जाता
जीती है वो, सभी हार कर,
वो तो…………
बहुत अच्छा लिखा है।
कवीता से पहले आपने जो लिखा है वही काफी था
बहुत ही दुःख भरी कविता है – ऐसी महिलाओं पर हम सिर्फ अफसोस के सिवा कुछ नही कह सकते।
रचना जी,
नारी के कष्टों को बखूबी उभारा है। बधाई।
भगवान करे ऐसी सहानुभूति सबके दिल में उपजे।
बाप रे, बडे कष्ट हैं.
अतयन्त मार्मिक रचना है.
//आपकी टिप्पणी देखी: मै जरुर पढ़ता हूँ और शायद जल्द ही वर्ड प्रेस अकाउन्ट से भी आप टिप्प्णी कर सकें :)//
“मैने कई बार एक अजन्मे बच्चे को भी मजदूरी करते देखा है”
रचनाजी,
आपकी उक्त पंक्ति कलेजा चीर गई।
सबसे ज्यादा दुःख तो इस बात का है कि लगभग सभी भारतिय “इस प्रकार के दर्द” को तो महसुस करते है मगर दर्द बाँटने वालों की फेहरिस्त फिर भी बहुत छोटी है ॰॰॰
खैर उम्मीद करता हूँ कुछ और हाथ जल्द ही उठेंगे।
Apne aas paas ki vastvik zindagi ske behad kareeb le jati hai ye kavita.
@ प्रेमलता जी, शुएब भाई, रत्ना जी, कान्ती जी, समीर जी, गिरिराज जी और मनीष जी,, क़ुछ व्यस्तता के चलते, जवाब देर से दे पा रही हूँ, माफ करें..आपका सभी का धन्यवाद मेरी बात को समझने का..
excelent apne zabardast likha hai may app ki tarif nahi kar raha hu lakin rok bhi nahi sakta you are awersome writer
thanks
jitendarsingh Rathod