सफर…..

पिछले कुछ दिनों से मैं, शब्दों की और पढने-लिखने की दुनिया से दूर रही.कई दिनों बाद अपने ‘चिट्ठा-घर’ मे लौटी हूँ. ऐसा नही है कि कुछ कहने को नही है, बल्कि सच ये है कि कहने को इतना कुछ है कि सूझ ही नही रहा, पहले क्या कहूँ. और फिर मेरी समझ से चिट्ठाकार होने की मायने ही ये हैं कि आप इस बात को लेकर भी बहुत कुछ कह सकते हैं कि कहने को कुछ नही है!!
अपने छोटे से सफर को लेकर जो बिखरे-बिखरे से विचार हैं, वो ही लिख रही हूँ.

“रफ्तारों का नाम सफर है,
धूप से तपती एक डगर है.
थक कर बैठें पेड के नीचे,
सूकून पा लें आँखें मीचें.
अब वो प्यारे पेड कहाँ हैं?
पतरों वाले ‘शेड’ यहाँ हैं!!

पिछ्ले कुछ दिनों के लिये मै मध्यप्रदेश मे थी और फिर कुछ दिनो के लिये मुम्बई मे. म.प्र. की यात्रा तो ‘अवर्णनीय’ होती है. अब भला कोई अपने शब्दों से, खराब सडकों से लगे झटकों का अहसास कैसे करा सकता है??
यात्रा, पर्यटन के उद्देश्य से नही थी बल्कि सामाजिक थी अत: जो मैने देखा वो बस लोग और लोग ही लोग थे!

“अपनो से मुलाकातें थीं,
कुछ यहाँ वहाँ की बातें थीं,
दौड-भाग मे दिन गुजरे,
और थकी-थकी सी रातें थीं!”

म.प्र.मे लोगों की जिन्दगी की रफ्तार बहुत धीमी, इस दोहे की तरह है–

“आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों,
इतनी जल्दी क्या करता है,जब जीना है बरसों!!”

लेकिन मुम्बई मे लोगों के सैलाब की बेतहाशा तेज रफ्तार को देखकर लगा कि ये लोग इस पुराने दोहे के अनुसार जीवन जीते हैं–

“काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल मे प्रलय होयेगा, बहुरि करेगा कब!”

मुम्बई मे ‘लोकल ट्रेन’ के प्लेटफार्म पर खडे-खडे ये पन्क्तियाँ लिखी थीं——-

प्लेटफार्म पर छोड दो रूतबा,
ये है ट्रेन का ‘जनरल’ डिब्बा.
खाली जेब हो या हो पैसा,
हर एक है दूसरे जैसा.
तन से तन आपस मे सटे हैं,
तीन की सीट पर पाँच डटे हैं.
तरह तरह की चीजें खाना,
कचरा,छिलके वहीं बिखराना.
कैसा सुख? कहाँ की सुविधा?
सफर कहाँ का? बस एक दुविधा!
इस हालत पर ट्रेन भी रोती,
खुद से तिगुने भार को ढोती.
भारत का आम आदमी पक्का,
उसका सफर है बस एक धक्का!
एक धक्के से अन्दर चढना,
एक धक्के से बाहर आना.
कहाँ की मन्जिल? कहाँ ठिकाना,
उसका काम है चलते जाना!!!

इन अन्तिम पन्क्तियों के साथ, आज के लिये बस इतना ही…

हमारा आना और जाना एक खबर ही तो है,
जिन्दगी क्या है? एक सफर ही तो है………

Published in: on नवम्बर 6, 2006 at 4:25 अपराह्न  Comments (13)  

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13 टिप्पणियां टिप्पणी करे

  1. जिंदगी पर काफ़ी कुछ कहती हैं आपकी पंक्तियां।

  2. बढि़या है. अब इसी तरह वह सब धीरे-धीरे कहें जो बहुत कुछ कहना है.

  3. यानि अब लम्बे समय तक आपके पास लिखने का बहुत सारा मसाला तैयार है. लिखती रहे, प्रतिक्षा रहेगी.
    चिट्ठाचर्चा में कविताओं पर टिप्पणी पढ़ने के बाद सावधानी बरतते हुए आपने गद्य तथा पद्य दोनो को एक साथ लिखा है.

  4. सड़क किनारे किसी पतली गली में,
    आड़ी-तिरछी बनी हुई है॰॰॰ जिन्दगी

    प्यार, खुशी, मंजील से दूर ले जाती “मजबूरी”
    शायद किसी खूंटे से बंधी हुई है॰॰॰ जिन्दगी

    सिगरेट के छल्ले और मदिरा की बोतलें
    अपनी मस्ती में मस्त बेफिक्र है॰॰॰ जिन्दगी

    खुले गगन में सितारों के बीच उड़ता पंछी बोला
    आगे बढ़ते रहने का नाम है॰॰॰ जिन्दगी

  5. प्लेट फॉर्म वाली कविता अच्छी लगी । अच्छा लिखा है आपने

  6. “अपनो से मुलाकातें थीं,
    कुछ यहाँ वहाँ की बातें थीं,
    दौड-भाग मे दिन गुजरे,
    और थकी-थकी सी रातें थीं!”
    फिर सुबह वही मुलाकातें थीं
    और शाम तक वही बातें थीं

    देखा रचना जी आपका ब्लॉग पढते अब मैं भी लाइन पर आगया 😉 😛
    वैसे आपके चिट्ठे का नाम “मुझे भी कुछ कहना है” आपने सही फर्माया अगर कहने को कुछ नही तो वो भी कहना है 🙂

  7. म.प्र.मे लोगों की जिन्दगी की रफ्तार बहुत धीमी, इस दोहे की तरह है–

    “आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों,
    इतनी जल्दी क्या करता है,जब जीना है बरसों!!”

    अरे, ये क्या कर रही हैं? 🙂 घर की बात बाहर-आपने तो हम सब की पोल ही खोल दी. वैसे अब सबको बता ही दिया है तो हम भी यही कहेंगे कि बात तो सही है.

    बम्बई लोकल का विवरण बहुत भाया:

    कहाँ की मन्जिल? कहाँ ठिकाना,
    उसका काम है चलते जाना!!!

    बधाई, आगे इंतजार है.

  8. @ भुवनेश जी, बहुत धन्यवाद.

    @ अनूप जी, शुक्रिया. आशा है जो कहना है वो सब कह पाउँगी!

    @ संजय भाई, बहुत धन्यवाद.वैसे मै ‘उस’ टिप्पणी के पहले ही यह पोस्ट लिख चुकी थी!और कविता मे अगर ‘कल्पना की उडान’ होती है तो शायद मै कविता नही लिखती. हाँ यथार्थ की बातें काव्यरूप (राइमिंग)मे जरूर लिखती हूँ..खैर छोटे मुँह बडी बातें अब और नही!! एक बार कहे गये शब्द तो वापस नही लिये जा सकते,उनसे शिक्षा जरूर ले ली है..और मै सीखने के लिये ही यहाँ हूँ..आशा है आपकी टिप्पणी के रूप मे मार्गदर्शन मिलता रहेगा..फिर से धन्यवाद.

    @ गिरिराज जी, जिन्दगी की कविता के लिये धन्यवाद.

    @ प्रत्यक्षा जी, बहुत धन्यवाद.

    @ अरे शुएब भाई! हमारी लाईन मे आकर क्यूँ मुसीबत मे पड्ते हैं? धन्यवाद.

    @ समीर जी, आप और हम म.प्र. के सीधे साधे लोग है..जो सच है वो कह ही देते हैं!! बहुत धन्यवाद आपकी पसँद जाहिर करने का..जल्दी ही लिखूँगी.

  9. गद्य और पद्य का उचित तालमेल किया है आपने

  10. gadya और पद्य का उचित तालमेल किया है आपने

  11. खूब, वैसे तो मैं कविता आदि पढ़ता नहीं परन्तु वह प्लेटफ़ॉर्म वाली कविता पसंद आई। लेकिन इसके साथ भीड़-भाड़ वाले प्लेटफ़ॉर्म या लोकल ट्रेन की तस्वीर होती तो कविता और भी सही लगती। 🙂

  12. @ तरून और अमित, आप दोनों का टिप्पणी के लिये धन्यवाद.

  13. […] एक हफ़्ते बाद क्यो‍ कि मै जा रही हूं सफ़र पर…तब  तक आप– सोचते रहिये, लिखते […]


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