अभी मै असमंजस से उबरी ही थी कि मेरी लेख लिखने की आतुरता ने मुझे चर्चित कर दिया..जब मैने कविता के बजाए लेख लिखने और अपने ‘ध्यान- केन्द्र’ के अनुभव के बारे मे लिखा तो मुझे जरा भी अन्दाजा नही था कि मेरी बातों पर इतनी गम्भीरता से विचार करके सब लोग विस्तृत रूप से अपने विचार रखेंगे..(धन्यवाद सभी का!) ..समाज के लिये मैने जो नही करने का निर्णय लिया था, उसे अब टीप्पणीकारों की खातिर फिर से करके देखना होगा!! और फिर मेरे लिये ये चिट्ठा अपने अनुभवों को बाँटने के साथ ही विचार-विमर्श ,सँवाद का एक मँच भी है, जिससे मै कुछ सीख सकूँ…शायद वो निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रसित था, मै सिर्फ बहाना ढूँढ रही थी…और मेरी समझ से हमारे कोई भी निर्णय एक सोच की प्रक्रिया के तहत होते हैँ, जो कई दिनो तक चलती है..
दूसरी बात जो मैने ‘नारद’ से सम्बन्धित श्रेणीयो की कही थी, उसके बारे मे भी मुझे पता चल चुका था कि ऐसा कुछ नही हो रहा, लेकिन ४ दिनों की मेहनत के बाद इतनी बडी पोस्ट जो मैने टन्कित की थी, उसे कम से कम एक बार अपने चिट्ठे पर देख कर फिर संपादित करना चाहती थी,लेकिन चिट्ठों से सम्बन्धित तकनीकी मामलों की हद दर्जे की अक्षमता के चलते जब एडिट का बटन दबाया तो पोस्ट के शब्दों के साथ कुछ चिन्ह भी दिखने लगे, अब इसके साथ कुछ भी छेडखानी करना मेरे लिये खतरे से खाली नही था, कहीं गडबड हो जाती तो ४ दिन की मेहनत पर पानी फिर जाता…और फिर दिक्कत ये थी कि कहीं और लिखकर फिर काटकर यहाँ चिपकाना होता है..ऐसा करते हुए मै पहले ‘गन्भीर’ किस्म की गलतीयाँ कर चुकी हूँ. अत: नही किया…’बिन्दु’के स्थान पर’चन्द्रबिन्दु’लगाने की गलती भी इसी सबके चलते सुधार नही सकी…मै समझ सकती हूँ कि अच्छी हिन्दी लिखने वालों (जैसी कि यहाँ अधिकतर लोग लिखते हैं) को ऐसा पढना ठीक नही लगता…..
खैर इस सबके चलते मेरे जैसी “कविता-शविता” लिखने वाली लेखिका (दुस्साहस के लिये क्षमा!)एक “महान लेख ” तक पहुँच गई (चिट्ठा-चर्चा के अतुल जी के सौजन्य से)और मुझे सीखने को मिला…..
इस दौरान मैने कुछ पुराने हिन्दी चिट्ठे पढे और मुझे लगा कि हम सभी,हमारे जीवन की सहजता और सरलता खोजने मे लगे हैं जो तेज रफ्तार जिन्दगी की भाग-दौड मे कहीं खोती जा रही है…
इस कविता मे मैने अपने गाँव (वैसे तो जिल्हा है और मैने इसे ‘शहर’ कहा भी है, लेकिन वँहा शहर जैसा कुछ नही है)के बारे मे बात की है..देखिये यदि आपको भी इसमे कुछ अपना-सा लगे तो..
** वहाँ की खासियत ये है कि वहाँ पर सडकें २-४ साल के लिये नही, बल्कि एक ‘पीढी’ के लिये बनाई जाती हैं,और सडकें सुधारने का भी कोई खास रिवाज नही है…लोग अपनी मिट्टी से जुडे रहना चाहते हैं, सडक के उपर की मिट्टी निकल गई तो और अन्दर वाली मिट्टी से जुड गए!!
(पिछले २-३ सालों मे स्थिती कुछ ठीक हुई है, स्थानीय नागरिकों और व्यापारियों की मदद से–ये बताना जरूरी है,अन्यथा मेरे भाई नाराज होंगे!!!)**
तो चलिये मेरे गाँव—
कितना सहनशील ये शहर ‘खरगोन’ है!
पानी का पता नही,बिजली से त्रस्त हैं,
धूल के गुबार हैं,सडकों से पस्त हैं,
फिर भी ये लोग यहाँ तबीयत से मस्त हैं,
सबको अनदेखा कर दावतों मे व्यस्त हैं,
व्यवस्था से बदहाल,लोग फिर भी मौन हैं
कितना——
बारिश मे सडकों पर तालाब बन जातें हैं,
सँकरी- सी सडकों पर लोग टकराते हैं,
यहाँ वहाँ गाय- भैंस आराम फरमाते हैं,
छोटे-छोटे बच्चे यहाँ बाइक दौडाते हैं,
पोलिस की सीटी को सुनता यहाँ कौन है?
कितना—-
हर कोई कहता है,जो बात मैने कही है,
बरसों पुरानी,ये बातें ना नई हैं,
लोग यहाँ पढे-लिखे,नेता भी कई हैं,
यूँ ही बस रहने की आदत बन गई है,
चाय और पान मिले, बाकी सब गौण है!
कितना—
हर ऋतु मे मच्छर यहाँ बेशुमार,बडे हैं,
पेड यहाँ सूख रहे,बाग भी सब उजडे हैं,
पालिका,प्रशासन अव्यवस्था पर अडे हैं,
लोग भी बस परेशान असहाय खडे हैं
व्यवस्था से बदहाल,लोग फिर भी मौन हैं,
कितना—